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बिगड़े बच्चे सबसे अच्छे

वी. आर. जोगी, पी. जी. वैद्य

प्रकाशक : पेंग्इन बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :115
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7819
आईएसबीएन :0-14-309983-3

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यह उपन्यास हाशिये पर पड़े बच्चों को समाज की मुख्य धारा से जोड़ने की एक सहज-सरल कथा है।...

Bigre Bachche Sabse Achchhe - A Hindi Book - by V R Jogi, P G Vaidya

‘बिगड़े बच्चे सबसे अच्छे’– कहानी है उन बच्चों की जो पारंपरिक शिक्षा के ढांचे में फ़िट नहीं हो पाते। पढ़ाई में कमज़ोर जान कर उन्हें आमतौर से स्कूलों से निकाल दिया जाता है। किंतु इन बच्चों को अगर कक्षा की चारदीवारी से निकाल कर वास्तविक शिक्षा दी जाए, उनके कोमल मन को आहत किए बिना उन्हें जीने की सही राह दिखाने की कोशिश की जाए, तो ये बच्चे किसी से कम नहीं हैं।

त्रिपाठी मास्टर जी का स्कूल वर्तमान शिक्षा व्यवस्था की कमियों की ओर इशारा करते हुए वैकल्पिकर शिक्षा-माध्यम की आवश्यकता को रेखांकित करता है। यह उपन्यास हाशिये पर पड़े बच्चों को समाज की मुख्य धारा से जोड़ने की एक सहज-सरल कथा है।

आवरण फ़ोटो : आशित पारिख

‘इस कमबख़्त बारिश से तो काफ़ी फिसलन हो रही है। लगता है, आज कपड़े कीचड़ से ही फाग खेलेंगे।’ मन ही मन बड़बड़ाते हुए रतनचंद गाड़ी से उतरे। ड्राइवर को गाड़ी पार्क करने के लिए कहकर वे लाठी के सहारे पैदल ही चलने लगे। हर सोमवार को शिवमंदिर जाने का उनका व्रत कभी खंडित नहीं हुआ था। मंदिर एक संकरी गली के दूसरे छोर पर था, इसलिए गाड़ी को मंदिर तक ले जाना संभव नहीं था। हर तरफ़ कीचड़ थी। बिलकुल संभलकर, धीरे-धीरे क़दम रखने पड़ रहे थे। थोड़ा आगे बढ़ने पर रतनचंद ने हमेशा की तरह दाहिनी तरफ़ देखा। पहले दर्शन सरस्वती के, बाद में शिव जी के।

‘ठण् ठण् ठण्...’ सरस्वती मंदिर स्कूल की पहली घंटी बजी। स्कूल का मैदान बच्चों से खिल उठा। देर से आए लड़के भाग-दौड़ के साथ स्कूल में प्रवेश कर रहे थे। वहीं खड़े होकर रतनचंद आंख भरकर उस दृश्य को देखने लगे। हर रोज़ इस सरस्वती मंदिर के दर्शन किए बग़ैर उनसे आगे बढ़ा नहीं जाता था। मानो अपने बचपन के खोए हुए क्षणों को ढूंढ़ने की उनकी कोशिश थी।

अब चलना चाहिए, यह सोचकर वे आगे बढ़े, तभी उन्हें तेज़ी से स्कूल जाते एक साइकिल सावर बच्चे की टक्कर लगी, वे गिर पड़े। ‘अरे, कोई बुड्ढा गिर पड़ा ! बुड्ढा गिर पड़ा !’ चारों ओर से आवाज़ें आने लगीं। जिस छात्र ने धक्का दिया था, उसने तो मुड़कर भी नहीं देखा। वह अपने दोस्तों के साथ साइकिल और तेज़ करके भागने की कोशिश में था।

इतने में एक तगड़ा हाथ उसकी साइकिल पर पड़ा। एक बारह-तेरह साल के सांवले, लंबे बालों वाले तथा फटी हाफ़ पैंट पहने लड़के ने साइकिल को कसकर पकड़ लिया था। उस साइकिल सवार के दोस्तों ने उस लड़के को घेर लिया और वे उसे धमकाने लगे। ‘चुपचाप साइकिल को छोड़ दे, बाज़ू हट, हमें देर हो रही है।’ वह लड़का भी कुछ कम नहीं था। उसने कहा, ‘पहले जाकर उस बूढ़े से क्षमा मांगो, फिर तुम्हें आगे बढ़ने दूंगा।’

साइकिल वाले छात्र के मित्रों में से एक ने लड़के को घूंसा लगाया। दूसरे ने उसे ढकेलना चाहा। लेकिन उस लड़के की पकड़ इतनी मजबूत थी कि वह छात्र अपनी साइकिल को छुड़ा नहीं पाया। यह सारा मामला रतनचंद जी की समझ में आया। वे वैसे ही घिसटते हुए आगे बढ़े और कहा, ‘जाने दो बेटे, छोड़ दो इन छात्रों को। उन्हें स्कूल जाने में देर होगी।’ मजबूर होकर लड़के ने अपनी पकड़ ढीली कर दी। वे छात्र फुर्ती से निकल गए। रतनचंद जी को अपने हाथों से संभालते हुए उसने कहा, ‘आपको कहां जाना है ? चलिए मैं छोड़ देता हूं।’

‘मैं अकेला जा सकता हूं। वैसे भी मेरी वजह से तुम्हें यों ही तकलीफ़ उठानी पड़ी,’ प्यार से उसकी पीठ थपथपाते हुए रतनचंद जी ने कहा।

‘उंह, इतनी-सी मार का मुझ पर क्या असर होगा ? वे लड़के तो पहले से ऐसे हैं। मैं उन्हें अच्छा सबक सिखानेवाला था।’
‘तुम पहचानते हो उन्हें ?’
‘पिछले साल इसी स्कूल में मेरी क्लास में तो थे।’

‘मतलब ! अब नहीं हैं ?’
लड़के ने सिर्फ़ सिर हिलाया।
‘क्यों ?’

‘क्योंकि इस साल मुझे स्कूल से निकाल दिया गया है।’ लड़के ने शर्मिंदा होकर कहा। रतनचंद जी को मानो धक्का-सा लगा।

‘इतने तेज़, होनहार लड़के हो, फिर तुम्हें स्कूल से क्यों निकाला गया ?’
‘फेल हो गया और बुरा बर्ताव किया।’
‘अरे !’ रतनचंद जी असमंजस में पड़े कि आगे क्या कहा जाए।

‘ठीक है। रहने दो, रहने दो। लेकिन तुमने अपना नाम नहीं बताया।’
‘राजा।’
‘वाह, बढ़िया नाम है। राजा, यह लो दस रुपए मिठाई के लिए।’ उसके हाथों में रुपए रखते हुए रतनचंद जी ने कहा।
‘छिः छिः बिलकुल नहीं।’ राजा ने इंकार कर दिया।

‘ले लो राजा बेटे, संकोच मत करो। तुमने मेरी मदद की, इसलिए प्यार से दे रहा हूं।’

‘मैंने कहां आपकी मदद की !’ राजा ने आश्चर्य से कहा।

‘अरे वाह ! मेरी ख़ातिर तुम्हारी इतनी पिटाई जो हुई।’
‘मार खाने के लिए पैसे लेने हैं ? बहुत ख़ूब। तब तो अब तक मेरे पास बहुत सारे रुपए इकट्ठे हो जाते, क्योंकि अनेक बार पीटा गया हूं।’ अट्टहास के साथ राजा ने कहा।
रतनचंद जी उसकी तरफ देखते ही रहे।

‘राजा, तुमने तो मुझे हैरानी में डाल दिया। वैसे, तुम्हारे माता-पिता जी क्या करते हैं ?’ प्रश्न सुनते ही राजा की हंसी गायब हो गई। वह स्तब्ध हो गया।

‘मेरा बाप जेल में है। मां तो बहुत पहले ही मेरे छोटे भाई को लेकर घर से चली गई। अब मैं और मेरी बहन रेखा, हम दोनों रह रहे हैं।’ रतनचंद जी गदगद हो उठे। उन्होंने महसूस किया कि इस लड़के के बारे में कुछ अधिक जानकारी प्राप्त करनी चाहिए। उन्होंने प्यार से पूछा, ‘बेटे, क्या अब तुम स्कूल नहीं जाते ?’

राजा का चेहरा खिल उठा। उसने कहा, ‘कौन कहता है कि स्कूल नहीं जाता ? मैं और रेखा त्रिपाठी के स्कूल में जाते हैं।’
‘सच ? बहुत खूब। कहां है आपके त्रिपाठी जी का स्कूल ?’
‘हमारा स्कूल...कभी मास्टर जी के घर में, कभी पेड़ के नीचे कभी भैसों के बाड़े में, कभी खेत में, कभी पहाड़ पर, तो कभी...’

‘बस, राजा, बस। आज के लिए इतने हादसे काफ़ी हैं।’
दोनों खिलखिलाकर हंस पड़े।

‘राजा, तुम्हारे इस चलते-फिरते स्कूल को देखने के लिए बहुत लालायित हूं। लेकिन यह त्रिपाठी मास्टर जी रहते कहां हैं ? क्या वे भी कभी पेड़ के नीचे, कभी तबेले में या कभी पहाड़ी पर रहते हैं ?’ रतनचंद जी ने मज़ाक़ से पूछा।

‘नहीं। यहां से सीधे आगे बढ़ने पर एक चौराहा है। उसके दाहिनी तरफ़ रामनगरी चाल है। वहां दूसरी मंजिल पर नौ नंबर के कमरे में मास्टर जी रहते हैं।’
‘इतनी नज़दीक है स्कूल ? तो फिर चलो, अभी मैं तुम्हारे साथ चलता हूं।’
‘नहीं, अभी नहीं। आज हमें किसी गैराज पर जाना है।’
‘गैराज ?’

‘भौतिकी का ‘हवा’ पाठ जो पढ़ना है। साथ ही हम पंक्चर निकालना भी सीखने वाले हैं। अब तो भागना ही पड़ेगा। बहुत देर हो गई है। अन्यथा स्कूल नहीं जा पाऊंगा।’
राजा भाग निकला। रतनचंद जी उसकी तरफ़ देखते ही रहे।

गैराज में ‘हवा’ पाठ पढ़ना है। कभी पहाड़ी पर, कभी पेड़ के नीचे।...यह कैसा स्कूल है ? स्कूल जाने वाले वे लड़के इतने बेहया थे और स्कूल से निकाला गया यह लड़का इतना समझदार ? क्यों उसे स्कूल से निकाला होगा ? रतनचंद जी का मस्तिष्क झनझना उठा। काफ़ी देर तक वे वैसे ही खड़े रहे। उन्होंने मन ही मन कुछ तय किया और आगे बढ़ गए।

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